निदा फ़ाज़ली की याद में
निदा साहब अपनी गज़लों में जीवन की आपाधापी और बैचेनी को इस तरह सामने लाते थे कि साहित्य से चार फुट की दूरी रखने वाला शख्स भी उसे सुनकर तपाक से 'वाह' बोल उठता था। निदा फ़ाज़ली की याद में उनकी ऐसी ही कुछ यादगार गज़लें -
कभी किसी को मुक़म्मल जहां नहीं मिलता
कहीं ज़मीन, कहीं आसमां नहीं मिलता
तमाम शह्र में ऐसा नहीं खुलूस न हो
जहां उम्मीद हो उसकी वहां नहीं मिलता
कहां चिराग़ जलाएं, कहां गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकां नहीं मिलता
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बां मिली है मगर हमज़बां नहीं मिलता
चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का नशां नहीं मिलता
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कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को खुद नहीं समझे औरों को समझाया है
मीरो ग़ालिब के शेरों ने किसका साथ निभाया है
सस्ते गीतों को लिख लिखकर हमने घर बनवाया है
हमसे पूछो इज़्जत वालों की इज़्जत का हाल कभी
हमने भी इक शहर में रहकर थोड़ा नाम कमाया है
उसको भूले मुद्दत गुज़री लेकिन आज न जाने क्यों
आंगन में हंसते बच्चों को बेकारण धमकाया है
उस बस्ती से छूटकर यूं तो हर चेहरे को याद किया
जिससे थोड़ी सी अनबन थी वो अक्सर याद आया है
कोई मिला तो हाथ मिलाया, कहीं गए तो बात की
घर से बाहर जब भी निकले दिन भर बोझ उठाया है
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अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाए
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए
जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ नहीं
उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाए
क्या हुआ शहर को कुछ भी तो नज़र आए कहीं
यूं किया जाए कभी खुद को रुलाया जाए
बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए
खुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन अभी औरों को सताया जाए
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
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दुनिया जिसे कहते हैं मिट्टी का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है
अच्छा सा कोई मौसम तनहा सा कोई आलम
हर वक्त का रोना तो बेकार का रोना है
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है
ग़म हो कि खुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है, हंसना है न रोना है
ये वक्त जो तेरा है, ये वक्त जो मेरा है
हर गाम पे पेहरा है, फिर भी इसे खोना है
आवारामिज़ाजी ने फैला दिया आंगन को
आकाश की चादर है धरती को बिछौना है
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अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफर के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं
वक्त के साथ है मिट्टी का सफर सदियों से
किसको मालूम, कहां के हैं, किधर के हम हैं
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं
कभी धरती के, कभी चांद नगर के हम हैं
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब
सोचते रहते हैं किस राहगुज़र के हम हैं
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं
कभी किसी को मुक़म्मल जहां नहीं मिलता
कहीं ज़मीन, कहीं आसमां नहीं मिलता
तमाम शह्र में ऐसा नहीं खुलूस न हो
जहां उम्मीद हो उसकी वहां नहीं मिलता
कहां चिराग़ जलाएं, कहां गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकां नहीं मिलता
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बां मिली है मगर हमज़बां नहीं मिलता
चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का नशां नहीं मिलता
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कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को खुद नहीं समझे औरों को समझाया है
मीरो ग़ालिब के शेरों ने किसका साथ निभाया है
सस्ते गीतों को लिख लिखकर हमने घर बनवाया है
हमसे पूछो इज़्जत वालों की इज़्जत का हाल कभी
हमने भी इक शहर में रहकर थोड़ा नाम कमाया है
उसको भूले मुद्दत गुज़री लेकिन आज न जाने क्यों
आंगन में हंसते बच्चों को बेकारण धमकाया है
उस बस्ती से छूटकर यूं तो हर चेहरे को याद किया
जिससे थोड़ी सी अनबन थी वो अक्सर याद आया है
कोई मिला तो हाथ मिलाया, कहीं गए तो बात की
घर से बाहर जब भी निकले दिन भर बोझ उठाया है
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अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाए
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए
जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ नहीं
उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाए
क्या हुआ शहर को कुछ भी तो नज़र आए कहीं
यूं किया जाए कभी खुद को रुलाया जाए
बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए
खुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन अभी औरों को सताया जाए
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
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दुनिया जिसे कहते हैं मिट्टी का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है
अच्छा सा कोई मौसम तनहा सा कोई आलम
हर वक्त का रोना तो बेकार का रोना है
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है
ग़म हो कि खुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है, हंसना है न रोना है
ये वक्त जो तेरा है, ये वक्त जो मेरा है
हर गाम पे पेहरा है, फिर भी इसे खोना है
आवारामिज़ाजी ने फैला दिया आंगन को
आकाश की चादर है धरती को बिछौना है
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अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफर के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं
वक्त के साथ है मिट्टी का सफर सदियों से
किसको मालूम, कहां के हैं, किधर के हम हैं
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं
कभी धरती के, कभी चांद नगर के हम हैं
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब
सोचते रहते हैं किस राहगुज़र के हम हैं
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं
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